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आखिर इनके दर्द को कौन सुनेगा !

mun ki bate
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 आख्रिर इनके दर्द को कौन सुनेगा। सरहद व सियासत के झमेले में पडे महमूदा खातून व हैदर अली के साथ रूबैदा खातून अब कहां जाए इनका तो मुल्‍क बदल गया इनका वतन कौन है यह न तो भारत की सरकार बता पा रही है और न ही पाकिस्‍तान की जलालत की जिन्‍दगी ये लोग जी रहे हैं विभाजन तो देश का हुआ लेकिन इन लोगों के दिलों को भी बांटने की कोशिश की गयी ि‍फर भी दिल है हिन्‍दुस्‍तानी का सपना सजोए हैं यह पीडा है पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के देवरिया जिले के  बघौचघाट थाना क्षेत्र के पोखरभिण्‍डा गांव के पैतक निवासी महमूदा खातून व हैदर अली की भारत पाकिस्‍तान विभाजन के समय ये लोग पूर्वी पाकिस्‍तान के रंगपुर में थे लेकिन जब 1963 में पूर्वी पाकिस्‍तान के बटवारे के लोग लेकर वहां आन्‍तरिक कलह शुरू हो गया था हुआ तब ये लोग भारत आकर अपने पैतक गांव में आए हुए थे और ये लोग यहां रूक गए जबकि 1971 में पाक बांग्‍लादेश का औपचारिक बटवारा हो गया था अब तो न तो बांग्‍लादेश के ही रहे और न ही पाक के उन्‍हें दोनों देश अपना नागरिक नहीं मानता है जिसके झंझट में पड गए सियासती झेमले का दंश झेल रहे ये लोग अब तक झेल रहे हैं रहते हैं अपने पुरखों की जमीन पर लेकिन इनका कहीं नाम पता नहीं और न ही समाज में गतिविधि में पक्‍के तौर पर शामिल हो सकते हैं सब कुछ उम्‍मीदों पर टिका है कभी इन्‍हें पाकिस्‍तानी कहा जाता है तो कभी बांग्‍लादेशी आखिर इनका मुल्‍क कौन है इन लोगों की पीडा का आलम यह है कि बीजा कानून के उल्‍लंघन में इनके पिता मोहम्‍मद हनीफ को 1965 में जेल की हवा खानी पडी थी और काफी मशक्‍कत के बाद बाहर आए लेकिन यह भी अपना मुल्‍क कौन है नहीं देख सके । लेकिन मोहम्‍मद हनीफ की पत्‍नी व उनके बेटे व बेटी को अभी भी जलालत की जिन्‍दगी जीनी पड रही रिश्‍ते नाते व जमीन यहां हैं लेकिन सियासती झमेले के चलते यहां कोई सुविधा नहीं मिली न ही राशन कार्ड और न ही वोटर कार्ड इन्‍हें चुनाव के वक्‍त काफी खलता है जब सभी मतदान के लिए जाते हैं लेकिन इनको मताधिकार नहीं है चाहे ग्राम पंचायत हो या विधान सभा अथवा लोकसभा कहीं भी इनका अपना नहीं है वजह सियासी झमेला किसी तरह से अपना जीवन यापन कर रहे हैं

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